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आलोचना >> रस सिद्धान्त का पुनर्विवेचन

रस सिद्धान्त का पुनर्विवेचन

गणपतिचन्द्र गुप्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13275
आईएसबीएन :0

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रस-सिद्धान्त भारतीय चिन्तन की लगभग दो सहस्राब्दियों की साधना की देन है

रस-सिद्धान्त भारतीय चिन्तन की लगभग दो सहस्राब्दियों की साधना की देन है। आचार्य भरत से लेकर डॉ. नगेन्द्र तक कितने ही मनीषियों व आचार्यों ने अपने-अपने चिन्तन का योग देकर इसे परिष्कृत व विकसित किया है। दूसरी ओर पाश्चात्य चिन्तन के क्षेत्र में भी जर्मन, फ्रेन्च, अंग्रेजी, रूसी आदि अनेक भाषाओं में कला के एक ऐसे सिद्धान्त की प्रतिष्ठा मिलती है जो भाव के विभिन्न अंगों—विभावादि—के चित्रण को या उसकी अभिव्यक्ति को ही कला का लक्ष्य मानता हुआ, निर्वैयक्तिकता एवं समानुभूति के द्वारा कलाकार एवं पाठक में तादात्मय की स्थापना से उपलब्ध सौन्दर्यात्मक भाव’ को ही कलानुभूति या आनन्दानुभूति का मूलाधार स्वीकार करता है तथा कला का वर्गीकरण भी उसमें व्यक्त भाव की प्रमुखता—रति, करुण, हास्य, औदात्य—के आधार पर करता है; वस्तुत: ये सारी स्थापनाएँ रस-सिद्धान्त से गहरा साम्य रखती है। रस-सिद्धान्त के आधारभूत तत्वों व प्रक्रियाओं का सम्बन्ध सौन्दर्य-शास्त्र, मनोविज्ञान एवं मनोविश्लेषण से भी है। वस्तुत: सौन्दर्य-शास्त्र की दृष्टि से ‘रस’ कलानुभूति या सौन्दर्यानुभूति का पर्याय है, अत: सौन्दर्यानुभूति के अन्तर्गत सौन्दर्य-शास्त्र में जो सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचन-विश्लेषण हुआ है, उसका उपयोग रस-सिद्धान्त के विवेचन या पुनर्विवेचन में सम्यक रूप में किया जा सकता है।

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